Tuesday, October 26, 2010

नियति

संध्या और उषा
दो सगी बहने
ब्याही गयीं सूरज के साथ
पर विडम्बना देखिये
दोने बेचारी
अब कभी मिल न पातीं
फिर भी अपना अपना
उत्तरदायित्व निभाती हैं
सूरज भी कहाँ खुश है
उषा से अलग होकर
संध्या से मिलने को
दिन भर तपता है
तब कहीं संध्या का होता है दीदार
उषा भी रात के पहलू में
बहाते हुए आँसू
करती है इंतज़ार
तब कहीं कुछ पलों के लिए
होता है सूरज का दीदार
संध्या बेचारी
दिन भर करती है
रो रो कर अकेले इंतज़ार
तब कहीं मिल पाती है
कुछ पल के लिए
अपने उस प्रीतम से
जो उषा से मिलने की बेकरारी लिए
चाँदनी के पहलू में
सो जाने को होता है बेकरार
ऐसे ही सुख और दुःख का
जीवन से होता है सामना
बार बार
पर निश्चित नहीं है
सुख या दुःख
एक निश्चित क्रम में
आते जाते हैं दोनों
यदि आज दुःख है
तो करो इंतज़ार
सुख आने को है
पर सदा के लिए नहीं
आखिर दुःख भी तो
नियति के निर्धारित
क्रम का अंग है.

नेत्र दान

कुलबुलाया मेरे मन में 
समाज सेवा का कीड़ा 
मैंने सोचा 
कुछ करना है 
किया जाय कुछ ऐसा
जो बन जाय नसीहत 
किया मैंने निश्चित 
दूंगा अपनी एक आँख 
किसी अंधे को
दर्शन कराऊंगा उसे 
इस हसीं दुनियां के 
दे  दी मैंने 
अपनी एक आँख
और खुद हो गया काना
दाहिनी आँख का स्थान 
खाली हो गया 
पर मन गर्व से भर गया था
पट्टियां खुलीं 
साथ साथ दोनों की
देखना चाहता था
मैं उसे खुश होते हुए
देखना चाहता था
वो मुझे ही सबसे पहले 
पर जो हुआ 
कभी सोचा न था ऐसा
मुझे देख वो बोला
आप लोगों ने
ये क्या कर दिया 
सबसे पहले एक 
काने को दिखा दिया
कर दिया अपशगुन
मैं क्या, सभी थे स्तब्ध 
और मैं सोच रहा था
जिसको आँख दिया
वही मुझे कह रहा है काना
ये कैसा ज़माना
पश्चाताप कर रहा था मैं
ये सोचकर कि
ये तो अभी भी अंधा है
आँख के अंधे तो 
ठीक हो जाते हैं 
नेत्रदान से 
पर दिमाग के अंधे का तो
भगवान ही मालिक है 

Monday, October 25, 2010

पिता का दिल

मेरा बच्चा बीमार रात जब जोर जोर से रोता है
चुप होता नहीं किसी सूरत हर लम्हा भारी होता है
मैं होता हूँ बेचैन और यूँ होता है एहसास मुझे
बाप के दिल में पोशीदाँ एक माँ का दिल भी होता है

वो बोले माँ सबसे पहले, मुझको बुरा नहीं लगता 
पर पापा बोले देरी से तो मेरा धीरज खोता है

मैं कैसे समझाऊँ उसको  मेरे सीने में भी दिल है
माँ को जब देख लपकता है चेहरा हँसता दिल रोता है 

आफिस में व्यस्त काम से भी जब थोड़ी फुर्सत मिलती है
मन के घोड़े पर हो सवार दिल सीधे घर पर होता है 

पत्नी को मेरी बहुत मज़ा आता है मुझे चिढाने में
पापा कहने पर भी बच्चे के मुह में माँ ही होता है 

बहुत मनाने पर जब मेरे पास कभी वो आता है 
हँसता है मेरे पास आँख में चेहरा माँ का होता है 

बच्चा तो आखिर बच्चा है धीरे धीरे ही समझेगा 
कि मम्मी केवल मम्मी है पर पापा पापा होता है 






Wednesday, October 20, 2010

रावण जिन्दा है

क्या आपने देखा है आत्मदाह ?
मैंने देखा है 
हर विजय दशमी पर
देखा है कि रावण ही 
जलाता है रावण को
और देता है भाषण 
करता है एलान
हो गयी जीत
बुराई पर अच्छाई की
मन ही मन मुस्कराता है
कि मैं तो जिन्दा हूँ मूर्खों
तुम्हारी कृपा से
वरना राम ने तो मुझे 
मुक्ति दे ही दी थी
मुझे जिन्दा रखना
तुम्हारी मजबूरी है
तुम्हे प्रतिदिन करना है 
सीता हरण
बनाते ही रहना है अपनी लंका
और करते रहना है पोषण
अपने मेघनाथों का 
तुम आश्वस्त हो कि अब 
न आएगा कोई पवन पुत्र
न कोई राम
अब तो सारे जहाँ में रहेगा बस
रावण ही रावण
करते रहोगे ये नाटक
और देते रहोगे नया जीवन 
मरने नहीं दोगे तुम मुझे 
और व्यर्थ करते रहोगे 
मेरी हर कोशिश
मुक्त होने की 
मन ही मन प्रसन्न होगे 
सोचकर कि
रावण जिन्दा है
हे राम! जाने कब मिलेगी मुझे मुक्ति

Saturday, October 16, 2010

चंदा मामा प्लीज सुनो

बच्चों के चंदा मामा, मुझको भी अच्छे लगते हो 
मेरे बच्चे कैसे हैं,  कुछ खोज खबर दे सकते हो 
मुझको उनकी चिंता है, क्या खाते हैं क्या पीते हैं
चाकलेट और बिस्किट के डब्बे घर में ही रीते हैं 
"नाना पकड़ो" कहके किसके आगे भाग रही होंगी
पता नहीं क्या खाया, सोई हैं कि जाग रही होंगी 
"पहले मैं" के झगडे में बनता है कौन बिचौलिया
नाना तो बेचारा बैठा कभी हँसा फिर रो लिया
"तुमने मुझको डांटा" कहके किसपे  गुस्सा करती हैं
चिप्स कुरकुरे में क्या अब भी "नाना हिस्सा" करती हैं
परेशान  हूँ  मैं  मेरे  बिन  कैसे  वो  रहती  होंगी
रोती तो होंगी और अपनी मम्मी से कहती होंगी
हमको नाना पास ले चलो हमको यहाँ नहीं रहना
बेटी मेरी रोती होगी सुन  के  बच्चों  का कहना
चंदा मामा प्लीज सुनो, कुछ समाचार ले आओ न
बच्चे मेरे खुश हैं बस इतना मुझको बतलाओ न






Monday, October 11, 2010

माँ का इंतकाम

धन्यवाद.......
धन्यवाद मेरे तथाकथित जीवनसाथी
तुमने किया था वादा
जिंदगी भर साथ निभाने का
पर टूट गए न
तुम भी
डरपोक और कमजोर
आशिकों कि तरह
छोड़ दिया मुझे
उस राह पर अकेले
जहाँ, चाहूँ भी तो नहीं पकड़ सकती
किसी और का दामन
क्यों कि अब है साथ मेरे
तेरा सूनापन और मेरा अपनापन

छोड़ गये मुझको पर कुछ तो दे गये
दुनिया जिसे कहती है जीने का सहारा
मैं बनाऊँगी उसे हथियार 
लूँगी इंतकाम तुमसे
तुम्हारी हर कमजोरी का

जो कुछ भी तुम नहीं कर सके
सब कुछ वो करेगा
किया तो तुमने
पर तुम्हारा बेटा भरेगा
तुम हो डरपोक
बेटे को बहादुर बनाऊँगी
तुम तो न दे सके मुझे
मेरे हिस्से कि खुशियाँ
अब वो देगा मुझे
सारे जहाँ कि खुशियाँ

तुम रहे निपट स्वार्थी
मैं सिखाऊँगी
उसे जीवन का मतलब
दूसरे के काम आना ही
जिंदगी का मकसद
मैं उसका बनाऊँगी

कर नहीं सकता कोई
मेरे बेटे को जुदा मुझसे
अगर तुम भी करना चाहोगे
तो जान लोगे वो सच
जो आज तक नहीं जान पाए
कि
माँ और उसकी संतान के बीच
होती है दुनिया की
सबसे खतरनाक जगह
कोशिश करके देखना
मैं तो क्या
बिल्ली भी काट खाएगी
पर अपने बच्चे को बचाएगी

तुम पर तो मैं
न कर सकी नाज़
पर मेरे बेटे पर
दुनिया नाज़ करेगी
और इस तरह
माँ की सूनी झोली भरेगी
और होगा पूरा मेरा इंतकाम

और तब
कर सको हिम्मत
तो सामने आना
मुझको तो छोड़ दिया
मेरे बेटे को गले लगाना
मैं इंतक़ाम इस तरह लूँगी
तुम्हे माफ़ कर दूँगी

Sunday, October 10, 2010

मेरी सोच

सोच कर  लिखना तो  कविता गढ़ने जैसा होता है
मौलवी  के  खौफ  से  कुछ  पढने  जैसा  होता  है 

देख दुनिया की अधूरी ख्वाहिशों के ढेर में
तेरा  भी  एक ख्वाब टूटे तारे जैसा होता है 

ले लिया हमने भी उनसे आज इक वादा नया
अब  नहीं  पूछेंगे, यारा  प्यार  कैसा  होता है 

देखते  होंगे  हमेशा  आप  सपने  नीद  में 
सोने न दे मुझको, मेरा सपना ऐसा होता है 

चाँद  से  चेहरे  को  तेरे  चूमना  चाहूँ, मगर  
तारों की आँखों में कुछ कुछ बहम जैसा होता है

हमसफ़र

हाथों कि लकीरों को क्यूँ निहारा करते हो
हाथों के दम पे क्यों नहीं सवांरा करते हो

खुशियों के जिम्मेदार तुम कहते हो अपने को
गम हो कोई मेरी तरफ इशारा करते हो

अकेले दस कदम में थक के हो जाते हो चूर
तो साथ चलना क्यूँ नहीं गंवारा करते हो

अच्छे दिनों में मौज मनाते हो अकेले
दुर्दिन का मेरे साथ क्यूँ बंटवारा करते हो

हम तो हमेशा साथ निभाने को हैं तैयार
तुम नाहक अपनी आँख को फव्वारा करते हो

तू  हमसफ़र तो बन दिन अच्छे हों  या बुरे
बेवजह मायूसी में दिन गुजारा करते हो

Saturday, October 9, 2010

चैन - एक ग़ज़ल

दिल में जो भी था वो लब पे खुद ब खुद आता गया
शेर मैं लिखता गया और दिल को बहलाता गया

सोचने का वक़्त है किसको कि देखूँ क्या लिखा
हर बयाँ के साथ दिल का जख्म गहराता गया

आँखें नम और जेहन में तस्वीर उनकी खंदाज़न
अश्कों कि गागर भरी रुक रुक के छलकाता गया

आज तक मैं जान न पाया कि क्या ये माजरा
दे के आँसू आँख को वो दिल को हँसाता गया

चैन मिलता है क्यूँ रोने में किसी के वास्ते
मैं न समझा हूँ न समझूँगा, यही गाता गया

Thursday, October 7, 2010

दिमाग का दही

आज लोगों मैं हूँ तैयार
आप भी हो जाओ
बनाते हैं,  दिमाग का दही
चौकिये मत बन्धु
बस मेरे साथ हो लीजिये
दही तो अपने आप बनेगा
ऐसा करिए ..... 
अपने दिमाग में
सोनिया का त्याग डालो
मनमोहन का भाग डालो
युवराज कि आस डालो 
देश का सर्वनाश डालो
कुछ हुआ? बना कि नहीं? 
नहीं?....तो 
डालो भाषणों के कुछ अंश 
राहुल  बाबा के 
मैंने कुछ कहा, पूरा नहीं
दिमाग कहा है आपका 
सुनते नहीं ध्यान से
यही तो त्रासदी है
जो सुनना चाहिए
वो तो आप सुनते ही नहीं
खैर... आगे बढ़ते है 

डालो भाषणों के कुछ अंश 
राहुल  बाबा के 

यदि गलती से पूरा पड़ गया 
तो दही कि जगह 
मही बन जायेगा 
जिसे खायेंगे बस पालतू कुत्ते 
पागल हो जायेगे
और काट खायेंगे 
हमको, आपको, सबको
यदि कहीं काट पाए एक "त्यागी" को
तो भूँकने का अंदाज़ बदल जायेगा
बहुत जोर से करेंगे भाओ भाओ 
"प्रियंका लाओ देश बचाओ"
पर आप तो आप हैं 
आप का दिमाग तो
आपका भी बाप है
अभी तक नहीं बना दही
मथिये, गरम करिए फिर ठंडा करिए 
शायद कुछ हो जाए
दही नहीं तो मट्ठा ही बन जाए 
नहीं बनेगा कुछ भी
कुछ भी नहीं हो सकता आपका
आपको खट्टे से परहेज जो है
चलिए याद दिलाते हैं आपको 
कुछ पुराने नुस्खे 
शास्त्री जी को कहीं भेजा था
समझौते के लिए
याद आया .... हाँ वही वही
ताशकंद समझौता 
हुआ भी, पर एक नहीं दो
दूसरा समझौता था 
शास्त्री जी और मौत के बीच 
इस समझौते पर 
किसने किये थे हस्ताक्षर
किसी को पता नहीं चला
लोगों ने कई तरह की बातें कही 
और बना था दिमाग का दही
एक नुस्खा और
याद है बिमान दुर्घटना
संजय गाँधी की 
नाक के बल गिरा था
कहते हैं पूरा ईधन से भरा था
पर धुवाँ भी नहीं उठा
कहाँ चला गया सारा ईधन
ऊपर वाला ही जाने
माँ ने तुरंत तो कहा
जाँच करायेंगे
दूसरे दिन कहा
जाँच की आवश्यकता ही नहीं
अब क्या गलत था क्या सही
पर बना था दिमाग का दही 
इसी तरह भैया दो नुस्खे और हैं
माँ बेटे से जुड़े
पर वे प्रोटेक्टेड हैं कापीराईट से
मैं बोलना तो क्या
सोचने से बचूंगा
पर मैं जानता हूँ एक बात
अभी तक तो नहीं
पर अब बना
आपके दिमाग का दही
बहुत सही गुरू
एक दम सही जा रहे हो
अंदाजा सटीक लगा रहे हो
मान गए आपके दिमाग को
क्यों न हो
इतने दिनों से
मजबूरी में ही सही
थोड़ी खट्टी ही सही
पर दही खा रहे हो
लगे रहो, सोचते रहो,
मथो, ठंडा करो, गरम करो
जैसे भी हो बनाते रहो
दिमाग का दही
आल दी बेस्ट

Wednesday, October 6, 2010

कशमकश









कोई नहीं कि गुनाहों से रोकता है मुझे
मेरा जमीर ही अक्सर झिझोड़ता है मुझे 

कोई तदबीर ऐसी मुझको सूझती ही नहीं
बेरहम दुनिया का दस्तूर टोकता है मुझे

जिसने छीना है उसे मार तो डालूँ लेकिन
तुम्हारी माँग का सिन्दूर रोकता है मुझे

सोचता हूँ अभी भी क्यूँ तेरी ही बावत मैं
ये ख़याल भी रह रह के कोसता है मुझे

जी करता है मैं किसी को खा जाऊं कच्चा
मेरा ज़मीर खुद मुझको परोसता है मुझे

उफ़ तेरे लब, तेरे आरिज़, तेरी कुशादा जबीं 
मैं इन्हें  खोजूं, दिल मेरा खोजता है मुझे 

पडोसी







उस देश का तो भैया कुछ हो नहीं सकता
जिस देश का हो सारा सिस्टम गला हुआ

करते ही जा रहे हैं वो कोरी सी बकवास
सारा का सारा जुमला पहले चला हुआ

उस देश का अवाम तो गुमसुम अवाक है
पाता है अपने आपको जैसे छला हुआ

किस पर करे यकीन और किस पर न करे
है कशमकश में जैसे दूध का जला हुआ

मिलती है इमदाद कही से तो यूँ लगे
जैसे पुराने मुक़दमे का फैसला हुआ

बदले में दे दिया है पडोसी से दुश्मनी
मीठा दूध कहा दे दिया नमक डला हुआ

कुछ सूझता नहीं अब सियासतदानो को 
बादलों के पीछे जैसे सूरज ढला हुआ 

हसरत से हमें देखती अवाम तो लगे
हो अपना खून पडोसी के घर पला हुआ

समझ गए हैं हम भी उनका मिजाज़ है 
जैसे करेला नीम के ऊपर फला हुआ



लो सबक पडोसी कुछ बिगड़ा नहीं अभी
दुश्मनी से आज तक किसका भला हुआ

वर्ना फिरोगे दर बदर छिपाते हुए मुँह
खुद ही मुँह पे जैसे कालिख मला हुआ


Monday, October 4, 2010

ख्वाहिश




जलूँगा मैं, यकीनन, है ये ख्वाहिश आखिरी मेरी
खुशबू फैलाये, हर ज़र्रा मेरा लोहबान हो जाये

गरीबों के बदन को भी मिले कुछ ढकने का सामां
मजारें शर्म से खुद दाखिल-इ-शमसान न हो जाएँ

गिरे कोई तो उसको मिल के उठायें हजारो हाँथ
खैरखाही ही अब हर सख्स का ईमान हो जाए

मेरे हाथो से भी नेकी भरा कुछ काम करवा दे
जहाँ से जाऊँ, नाम मेरा इक उन्ह्वान हो जाये

बढाऊँ जब कदम सब छोड़ के मैं, तुम को पाने को
मेरी ख्वाहिश है कि मंजिल मेरी आसान हो जाए

किसी मुफलिस से आँखे मोड़ने का सोचूँ मैं अगर
तुम्हारे होने का मुझको तुरत इमकान हो जाए

कोई मंदिर में न जाये, कोई मस्जिद में न जाये
कुछ ऐसा कर कि ऐसे चलन का उठान हो जाये

किसी भी पल अगर तुझको भुलाऊँ औ बहक जाऊँ 
किसी मस्जिद से ऐन उसी वक़्त अजान हो जाए

ए खुदा ऐसी सीरत बख्श अपने बन्दों को जिससे
कुरान गीता हो जाए , गीता कुरान हो जाये

Saturday, October 2, 2010

खुशी के आँसू


हे बापू !!
सुनते हैं ?
ई लाठिया लिहे, 
ठेहुनी पे धोती चढ़ा के, 
कहाँ चल देते हैं सबेरे सबेरे 
कौनो सुनता है आपकी
काहे लिए सेहत खराब करते है
रोज उतर के जाते हैं
झाँक के चले आते है

एक बार जो किये और जो पाए
लगता है पेट नही भरा 

का देखने जाते हैं ?
घूम घूम के अपनी मूर्ति से 
धूल झाड़ने जाते हैं का ? 
और ई आज काहे लिए जा रहे हैं ?
आज तो चैन से बैठिये
जनम दिन है आपका
आज तो अपने आप ही चमकाएँगे 
झंडा फहराएंगे 
भाषण देंगे
और जाने का का नौटंकी करेंगे 
...................................
...................................
लौट आये, बहुत जल्दी
का बात है 
बहुत खुश हैं आज
ई देखो.... कैसे गदगद हैं 
इतना खुश तो आज तक न दिखे
बहुत मुस्किया रहे हैं
प्रसन्न  हैं 
हम समझ गए
लगता है 
बच्चे सुधर रहे हैं

हे बापू
आपको खुश देखके 
आज हमरा मन भी बहुतै प्रसन्न  है 
देखिये न 
हमरी आँखें 
खुशी के आँसू हैं ये इनमे 

हे भगवान, कितने साल बाद
देखी है ये मुस्कराहट

अब से आप दू बार जाइये न
नही रोकेंगे
पर ऐसे ही मुस्कराते रहा करिए
बापू..... तानी इधर देखिये
अब आपको का हुआ ?
काहे मुह घुमा के 
आँख पोंछ रहे हैं 
रो रहे हैं न ?
.....................
अरे नहीं भाग्यवान
आज लगा की मेंरी मेहनत सफल हो गयी 
आज अपने बच्चों को 
साथ साथ देख के बहुतै अच्छा लगा 
जी भर आया 
आज तो हम बहुत खुश हैं 
हम रोएंगे काहे लिए? 
ये तो खुशी के आँसू हैं 


शेष धर तिवारी, इलाहबाद, २ अक्टूबर २०१०