दो सगी बहने
ब्याही गयीं सूरज के साथ
पर विडम्बना देखिये
दोने बेचारी
अब कभी मिल न पातीं
फिर भी अपना अपना
उत्तरदायित्व निभाती हैंसूरज भी कहाँ खुश है
उषा से अलग होकर
संध्या से मिलने को
दिन भर तपता है
तब कहीं संध्या का होता है दीदार
उषा भी रात के पहलू में
बहाते हुए आँसू
करती है इंतज़ार
तब कहीं कुछ पलों के लिए
होता है सूरज का दीदार
संध्या बेचारी
दिन भर करती है
रो रो कर अकेले इंतज़ार
तब कहीं मिल पाती है
कुछ पल के लिए
अपने उस प्रीतम से
जो उषा से मिलने की बेकरारी लिए
चाँदनी के पहलू में
सो जाने को होता है बेकरार
ऐसे ही सुख और दुःख का
जीवन से होता है सामना
बार बार
पर निश्चित नहीं है
सुख या दुःख
एक निश्चित क्रम में
आते जाते हैं दोनों
यदि आज दुःख है
तो करो इंतज़ार
सुख आने को है
पर सदा के लिए नहीं
आखिर दुःख भी तो
नियति के निर्धारित
क्रम का अंग है.
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