Monday, September 26, 2011

समंदर ने जब भी किनारा किया

समंदर ने जब भी किनारा किया
नुमू हो क़मर ने इशारा किया.........नुमूं - प्रकाशित, क़मर - चाँद

मेरे साथ साहिल भी रोता रहा
समंदर को यूँ हमने खारा किया

भले बाप कदमो में कर ले जहां
पर औलाद से खुद की हारा किया

पता था हमें वो न आएगा अब
न जाने ये दिल क्यूँ पुकारा किया

कहाँ ढूंढते दश्त में आशियाँ
शज़र को ही अपना सहारा किया

दुआओं की तासीर मत पूछिए
इन्ही के सहारे गुजारा किया

रगे अब्र तक़दीर लिखने को थी .......... रगे अब्र - बादलों के बीच की लकीर
मुक़द्दर ने उल्टा इशारा किया

जहां में नहीं कोई साथी मिला
तो दुश्मन ही मैंने गवारा किया

खुदा तू बुढापा बनाता है क्यूँ
कि बेटों ने ही बेसहारा किया

जो कुफ्फ़ार की महफ़िलें थीं उन्हें
तहीयत का हमने इदारा किया

Saturday, September 24, 2011


दिलो जां लुटाने के दिन आ रहे हैं
कि वादे निभाने के दिन आ रहे हैं

सुना है यहाँ आशियाने बनेंगे
लो झोपड़ ढहाने के दिन आ रहे हैं

हुई उम्र सत्तर औ ऊपर से सर्दी
तो चलने चलाने के दिन आ रहे हैं

सुना है कि आने को है फिर एलेक्शन
कि फिर उनके आने के दिन आ रहे हैं

खुशी में रहे साथ जो, अब ग़मों में
उन्हें आजमाने के दिन आ रहे हैं

है छप्पर फटा और बारिश का मौसम
मेरे फटफटाने के दिन आ रहे हैं

परिंदों में फिर हो रही आशनाई
कि खोथे बनाने के दिन आ रहे हैं

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से
बहुत मायूस हो बैठा है शायद ज़िंदगी से


अँधेरा ओढकर सूरज को झुठलाता मैं कब तक
निकल आया हूँ अब मैं जामे जम  की तीरगी से


ख़याल अच्छा रहा होगा कभी, बहलाने को दिल
नहीं रिश्ता कोई सहरा का अब भी तिश्नगी से


खुदा आये न  कोई ऐब मेरी शख्सियत में
मुतासिर सोच हो जाती है अंपनी ही कमी से


अदब में क्यूँ सियासत हो कि हो फिरकापरस्ती
कलम के जो सिपाही हैं लड़ा करते इन्ही से


हमारी खामुशी की चीख सुन लेता है मौला
मिला करता सदाए हक़, सदाक़त की हिसी से


समंदर पर भरोसा क्यूँ नहीं होता क़मर को
किये ही जा रहा तौज़ीन जाने किस सदी से   

Tuesday, September 20, 2011


चलो हम आज इक दूजे में कुछ ऐसे सिमट जाएँ
हम अपनी रंजिशों, शिकवाए ख्वारी से भी नट जाएँ

मेरी ख्वाहिश नहीं है वो अना की जंग में हारें
मगर दिल चाहता है आके वो मुझसे लिपट जाएँ

हमारी ज़िंदगी में तो मुसलसल जंग है जारी
यही बेहतर रहेगा आप खुद ही पीछे हट जाएँ

जुदा होते हैं रस्ते, हो भले मंजिल वही सब की
नहीं होता ये मुमकिन हम उसूलों से उलट जाएँ

बना लें मिल के गर हम प्रेम औ सौहार्द की पुट्टी
दरारें हैं जो अपने बीच मुमकिन है कि पट जाएँ

हमें तो चाह कर भी आप पर गुस्सा नहीं आता
कहीं गुस्से में जो खुद आप वादे से पलट जाएँ

भरोसा है हमें इक दूसरे पर ये तो अच्छा है
गुमां इतना न हो इसका कि हम दुनिया से कट जाएँ 





Sunday, September 11, 2011

हर लहर सागर की साहिल तक पहुँच पाती नहीं


हर लहर सागर की साहिल तक पहुँच पाती नहीं
मिट भले जाती है लेकिन लौट कर जाती नहीं


मिल गयी मंजिल उसे जिसने सफर पूरा किया  
मंजिले मक़सूद चलकर खुद कभी आती नहीं


देख कर चेहरा, पलट देते हैं अब वो आइना
मौसमे फुरकत उन्हें सूरत कोई भाती नहीं


ज़िंदगी तो कर्म-फल के दायरों में है बंधी
गम खुशी सब में बराबर बाँट वो पाती नहीं


इस जहां के बाद भी है इक जहां, जाकर जहाँ
हम समझते हैं, कोई शै साथ में जाती नहीं

Tuesday, September 6, 2011

उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहिए

मुश्किलों से लड़ इन्हें आसां बनाना चाहिए
तैर कर दरयाब के उस पार जाना चाहिए


जिस्म पर तम्गों कि सूरत जो हैं जख्मों के निशां
दिल में इनको अब करीने से सजाना चाहिए


ज़िंदगी जब जख्म पर दे जख्म तो हंस कर हमें
आजमाइश की हदों को आजमाना चाहिए


आईना कहता है क्या हो फिक्र इसकी क्यूँ हमें
अब ज़मीर-ओ-दिल को आईना बनाना चाहिए


देख ली दुनिया बहुत अब देखे ले दुनिया हमें
मौत को भी ज़िंदगी के गुर सिखाना चाहिए


क्या हुआ जो हमसफ़र कोई नहीं है साथ में
अब तो तनहा कारवाँ बनकर दिखाना चाहिए


ज़िंदगी खुद्दारियों के साथ जीने के लिए
जह्र पीकर शिव सा हमको मुस्कराना चाहिए


जिसके हर इक शेर ने तुम को नुमाया कर दिया
उस ग़ज़ल को ज़िंदगी भर गुनगुनाना चाहिए

Friday, September 2, 2011


हमारे सपने भ्रष्टाचार से लड़ते रहे अब तक
मगर मजबूर हो कर हम इसे सहते रहे अब तक 

हमें जिनपर भरोसा था करेंगे रहबरी बढ़ कर 
वो अपनी कुर्सियों के गिर्द ही रहते रहे अब तक 

ज़मीं से आसमां तक जो दिखाई दे उसे पा लें 
मिला मौका उन्हें तो लूट ही करते रहे अब तक


छुपे क्यूँ फिर रहे हैं जो प्रवक्ता थे मुखर उनके
डरे क्यूँ उससे ही बूढा जिसे कहते रहे अब तक


लगे हैं आज जिसकी मेजबानी में सभी मिलकर
उसी पर बेशरम हो फब्तियां कसते रहे अब तक


बहुत अब हो चुका आ जाओ तुम औकात में अपनी
फनीला नाग बनकर तुम हमें डसते रहे अब तक


28-08-2011

Thursday, September 1, 2011



जब ग़ज़ल का हर अहम मिसरा अहं से चूर है
क्या करे शायर बिचारा वह बहुत मजबूर है


भागता है सूए सहरा आब की ख्वाहिश लिए
है नहीं मंजिल, समझता है कि मंजिल दूर है


था गुमां, मैं भी बनूँगा मीर, पुर जोशे निहाँ
पर कम इल्मी से हर ऐसा ख्वाब चकनाचूर है


क्या बिना उस्ताद बन सकता है कोई फन शनास
ताब से खुरशीद की महताब भी पुरनूर है


नक्श पाए रहनुमा होते तेरे पेशे नज़र
फख्र से कहता मेरी ग़ज़लों में दम भरपूर है