Saturday, September 24, 2011

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से

मिला करता है अपने आप से भी बेरुखी से
बहुत मायूस हो बैठा है शायद ज़िंदगी से


अँधेरा ओढकर सूरज को झुठलाता मैं कब तक
निकल आया हूँ अब मैं जामे जम  की तीरगी से


ख़याल अच्छा रहा होगा कभी, बहलाने को दिल
नहीं रिश्ता कोई सहरा का अब भी तिश्नगी से


खुदा आये न  कोई ऐब मेरी शख्सियत में
मुतासिर सोच हो जाती है अंपनी ही कमी से


अदब में क्यूँ सियासत हो कि हो फिरकापरस्ती
कलम के जो सिपाही हैं लड़ा करते इन्ही से


हमारी खामुशी की चीख सुन लेता है मौला
मिला करता सदाए हक़, सदाक़त की हिसी से


समंदर पर भरोसा क्यूँ नहीं होता क़मर को
किये ही जा रहा तौज़ीन जाने किस सदी से   

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