Friday, September 2, 2011


हमारे सपने भ्रष्टाचार से लड़ते रहे अब तक
मगर मजबूर हो कर हम इसे सहते रहे अब तक 

हमें जिनपर भरोसा था करेंगे रहबरी बढ़ कर 
वो अपनी कुर्सियों के गिर्द ही रहते रहे अब तक 

ज़मीं से आसमां तक जो दिखाई दे उसे पा लें 
मिला मौका उन्हें तो लूट ही करते रहे अब तक


छुपे क्यूँ फिर रहे हैं जो प्रवक्ता थे मुखर उनके
डरे क्यूँ उससे ही बूढा जिसे कहते रहे अब तक


लगे हैं आज जिसकी मेजबानी में सभी मिलकर
उसी पर बेशरम हो फब्तियां कसते रहे अब तक


बहुत अब हो चुका आ जाओ तुम औकात में अपनी
फनीला नाग बनकर तुम हमें डसते रहे अब तक


28-08-2011

2 comments:

  1. दुष्यंत कुमार को याद करने का सही तरीक़ा

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  2. वाह बहुत खूब ..हर शेर बहुत अच्छा है

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