Sunday, December 5, 2010

जाने कब उबरेंगे

याद करता हूँ तुम्हे
आज भी
बीत गए कई दशक,
और कितने बीतेंगे
पर भूल न सकूँगा तुम्हे,
संभव नहीं
नहीं देखी हँसी तेरी हँसी जैसी
देखी न हसीन कोई तेरे जैसी

उस दिन सीढ़ियों पर
उठाया था नकाब तुमने
पहली बार देखा था मैंने निकलता
रात की ओट से एक चाँद
मैंने जो कह दिया था
की तेरे गाल हैं सेब जैसे लाल
याद है.. तुमने किया था क्या कमाल
फेंका था छत से मेरी ओर
एक बड़ा सा चिकना सेब
गिरा था भाभी के सामने
पीठ घुमा के खड़ा हो गया था मैं
जैसे कुछ देखा ही नहीं
पर भाभी तो भाभी होती हैं
ताड़ लिया था, पर बोलीं नहीं
याद है तुम्हे......
आधी रात को खिड़की पे आके
तुम बाल खोल दिया करती थी
और सवारती थी बार बार
उन्ही दिनों मैंने लिखी थीं ये पंक्तियाँ चार
"देखूँ तो झूठे गुस्से का इज़हार करती हो
ना देखूँ तो रुक के इंतज़ार करती हो
आके खिड़की पे ही क्यूँ बाल खोलती हो
बिना मुह खोले कितना झूठ बोलती हो "
पूछ लिया था एक दिन
क्यों इतनी रात में संवारती हो बाल
जवाब था तुम्हारा
रात में बाल संवारने से प्रियतम की उम्र बढ़ती है
और इस तरह जोड़ दिए तुमने
मेरी उम्र में जाने कितने साल
पर अपना भविष्य तो बन के रह गया एक सवाल
सोच सोच तुमको, ले के अपनी कल्पना में
हँसता भी था, रोता भी था
अच्छा लगता था
अपनी सामाजिक मजबूरियाँ तो थीं
पर जाने क्यूँ मैं आश्वस्त था
और तैयार था लड़ने को किसी से भी
क्यों कि मैंने देख लिया था
तुम्हारी आँखों में अपने लिए आँसू
और उस दिन मैंने लिखा था
अपनी डायरी में
"अपने हालात पे जो उनको चश्मे-तर देखा
अकेले दुनियाँ से लड़ने का हौसला अब है"
बड़े होते गए हम दोनों
और हो गयी थी हासिल महारत
पढने में आँखों और इशारों की भाषा
बहुत रोया था उस दिन
जब तुम्हारी आँखों में पढ़ लिया था मैंने
तुम्हारी छटपटाहट और बेबसी को
मैं रोक ना पाया और फूट पड़ा था
भाभी के सामने, और उस दिन
मेरी भाभी मुझे माँ सी दिखी थीं
पर अपनी सीमाओं को जानती थीं
मुझे बताया कि कल वो आयी थी
बहुत रोई थी गिड़गिड़ाई थी
भैया ने उसे प्यार से समझाया था
भाभी ने बताया, धर्म आड़े आया था
उसी दिन से एक प्रश्न
अनुत्तरित है मेरे मन में आज तक
ये धर्म-जाति  के विधान बने हैं हमारे लिए
या हम बने हैं मर कर भी इन्हें निभाने के लिए
स्वीकार नहीं है ऐसा कोई नियम मुझे
जो हमारी जायज खुशियों कि कुर्बानी मांगे
जाने कब उबरेंगे हम इनसे
और जी पायेंगे ज़िन्दगी को
अपनी तरह से

2 comments:

  1. आपकी इस रचना को पढ़ कर सारे भावनाएं पिघल कर दृष्टि या कंठ को अवरुद्ध कर रही हैं !इन सरल शब्दों में रूढिवादिता ,धर्मान्धता और निश्चल प्रेम की तासीर हर भाव को आपने बिखरा कर रख दिया|

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  2. आपकी इस रचना को पढ़ कर सारे भावनाएं पिघल कर दृष्टि या कंठ को अवरुद्ध कर रही हैं !इन सरल शब्दों में रूढिवादिता ,धर्मान्धता और निश्चल प्रेम की तासीर हर भाव को आपने बिखरा कर रख दिया|

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