कब तक मैं खुद को बहलाऊँ मुझको भी अधिकार चाहिए
जो तुम राम नहीं तो मैं सीता माता कैसे बन जाऊं
क्यों भटकूँ मैं जंगल जंगल क्यों कोई मृग देख रिझाऊं
क्या मैं केवल मैं बनकर ही रह न सकूंगी इस जीवन में
तुम मेरे बस मेरे हो क्या कह न सकूंगी इस जीवन में
स्रष्टि संचरण की मैं उद्गम मैं जग का विप्लव भी हूँ
कभी किसी का आर्तनाद तो कभी मधुर कलरव भी हूँ
मुझको जो पहचान सका वो मेरा है मैं उसकी हूँ
सबसे पहले मैं तो मैं हूँ फिर मैं चाहे जिसकी हूँ
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