Tuesday, September 24, 2013

निभा कर फ़र्ज़ सब, सुस्ता रहा हूँ

निभा कर फ़र्ज़ सब, सुस्ता रहा हूँ
ख़ुदा ! तेरे इशारे को रुका हूँ
 
वही पीछे पड़े हैं ले के पत्थर
मैं जिनकी फ़िक्र में  पागल हुआ हूँ
 
मेरे सीने पे रख कर पाँव बढ़ जा
तेरी  मंज़िल नहीं मैं रास्ता हूँ
 
मुझे अपनों ने क्यूँ ठुकरा दिया है
ये गैरों से लिपट कर पूंछता हूँ
 
मुझे मालूम है मेरी हक़ीक़त
निज़ामे ज़ीस्त का मैं आइना हूँ
 
किसी को भी रुला सकता हूँ पल में
बजाहिर  यूँ तो पत्थर हो गया हूँ

सबब दरिया है या उसकी रवानी
जो पत्थर हो के भी मैं बह चला हूँ
 
मेरी अब नब्ज़ भी चलती है डर के
उसे लगता है मैं उससे खफ़ा हूँ
 
धड़कना बंद कर दे ऐ मेरे दिल
सुकूं तुझको मिले, मैं भी थका हूँ

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