Monday, June 3, 2013

बुज़ुर्गों की जिन्हें हक़ बात भी अच्छी नहीं लगती

बुज़ुर्गों की जिन्हें हक़ बात भी अच्छी नहीं लगती
उन्हें ताउम्र अपनी ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती

दिखा मत ज़ोर अपना अब्र तू नाशाद सूरजको
किसी भी दिलजले को दिल्लगी अच्छी नहीं लगती

खिला रहता नहीं क्यूँ चाँद यकसाँ जैसे पूनम का
हसीं चेहरों पे फीकी से हँसी अच्छी नहीं लगती

जिसे जो रास आये, रास्ता कर ले इबादत का
अक़ीदत पर कभी छीटाकशी अच्छी नहीं लगती


फ़रीक़े ज़िन्दगी को ज़िंदगी से क्या गिला शिकवा
शरीके हाल से नाराज़गी अच्छी नहीं लगती

दिखे जब अब्र अफसुर्दा तो सूरज भी हुआ बेदिल
हो दुश्मन ग़मज़दा तो दुश्मनी अच्छी नहीं लगती

हिसारे ज़िस्म से आज़ाद हो ऐ रूहे पाकीज़ा
पुराने पैरहन से दोस्ती अच्छी नहीं लगती  

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