Saturday, April 6, 2013

इंसानियत की जिसमे मुक़द्दस शमीम है

हक़ है ज़फर पे, खुद वो अमिम-ओ-अलीम है
इंसानियत की जिसमे मुक़द्दस शमीम है

उसमे ही वस्ल हो जा जिसे चाहता है तू
हर्फ़-इ-अलिफ़ तो यूँ ही नहीं यूँ अज़ीम है

चेहरा जो मेरा देखके हालात जान ले
शाने पे रख दे हाँथ वो मेरा नदीम है

वो खाब मेरे जान के मेरे कहे बगैर
ताबीर बन के साथ है, इतना अज़ीम है

जो नेमतें खुद की नहीं प् सका कभी
इंसान वो ही अस्ल में होता यतीम है

वज्ह-ए-शिक़स्ते सख्त हुईं बदगुमानियां
है बा'ज़फर वो जिसमे खुदाई वसीम है

खुद अपने बाजुओं पे है मुझको यकीन यूँ
हांथों पे मेरे मेरा मुक़द्दर रक़ीम है

वो बेगुनाहियों की सज़ा पा रहे हैं क्यूँ
क्या मुफलिसी भी खल्क़ में वजह-ए-रजीम है

यूँ आईने को देख के मायूस हो न तू
तुझसे बिछड़ के दिल तो मेरा भी हतीम है


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