नसीब अपना नहीं जिसको पता है
वो औरों की लकीरें देखता है
लजाती है सहन में धूप ऐसे
की जैसे वो किसी की ब्याहता है
हवा फिरती है हर सू पागलों सी
कई दिन से ज्यूँ बेटा लापता है
कहा क्या चांदनी ने चाँद से जो
छुपाने को हंसी मुंह ढांपता है
सफ़र कितना है लम्बा ज़िंदगी का
जो सूरज रोज इसको नापता है
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