Tuesday, February 12, 2013

उम्र भर धूप में नहाये हम

अश्क उनके तो पोंछ आये हम
खुद मगर मुस्करा न पाए हम

छाँव औलाद के लिए बनकर
'उम्र भर धूप में नहाये हम'

घर मकां को बना नहीं पाते
तोड़ते हैं बसे बसाये हम

शह्र ने खाब भी नहीं बख्शे
गाँव पहुचे लुटे लुटाये हम
हक़ हमें है गुनाह का आदम
आखिरस हैं तेरे ही जाए हम 
 भूल बैठे, बनी जब अपने पर
फलसफे सब रटे रटाये हम

  ख्वाहिशों ने कही ग़ज़ल लेकिन
एक भी शेर कह न पाए हम

शायरी का नशा चढ़ा जब से
होश में फिर कभी न आये हम

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