Saturday, November 10, 2012

कुछ सहमे कुछ गूंगे शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

अभिलाषाओं की चादर से 
मुह ढक कर मैं रोता हूँ   
आज लेखनी थकी हुई
कुछ कहने को आतुर भी है
मेरे मन में
सधे, सहेजे भावों का अंकुर भी है
मैं फटही चादर के नीचे
सिंह द्वार पर सोता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

मेरे शब्दों को पढ़कर
कुछ रोते, कुछ मुस्काते हैं
कुछ अपनी अंधी, उदास
मानवता को उकसाते हैं
मैं निराश-जन के मन में
आशा के अंकुर बोता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ

मुझको लूटा राजाओं ने
पूजा चन्द फकीरों ने
आजादी मुझको दी है
कुछ वीरों की शमशीरों ने
उनके अहसानों का बोझ उठाता  हूँ,
खुश होता हूँ
कुछ सहमे कुछ गूंगे
शब्दों में एहसास पिरोता हूँ




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