Sunday, February 12, 2012



ख़्वाब की ताबीर पर मैं मुस्कराया रात भर
चांदनी में आज मैं जी भर नहाया रात भर

ज़िंदगी दो चार दिन की है इसे हँस कर जियो 
मानता वो है नही, मैंने मनाया रात भर

ताक़यामत तो नही रहती है कोई शै मगर
दोस्तों की बेरुखी पर तिलमिलाया रात भर

सुन के नानी की कहानी आज वो रोई बहुत
माँ की मीठी लोरियों ने फिर सुलाया रात भर

आपसी रिश्तों की तल्खी हो गयी नासूर सी 
आँसुओं ने दर्द से रिश्ता निभाया रात भर 

बेरुखी तेरी सताती ही रही दिन भर मुझे
सब्र को तन्हाइयों ने आजमाया रात भर

जो खिला पाया नही इक फूल अपने बाग में
गुल, गुलिस्तां की ग़ज़ल वो गुनगुनाया रात भर

दूर हो कर मुझसे वो भी सो न पायेगा कभी
बस इसी इक बात ने मुझको जगाया रात भर

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