Monday, November 14, 2011

बेबसी में हम कभी रोते कभी हँसते रहे
मुश्किलों से बारहा हर हाल में लड़ते रहे

ज़िंदगी की आंच में जो मोम सा गलते रहे
वो मुसलसल वक़्त के सांचे में ही ढलते रहे

आज से बेहतर रहेगा कल इसी उम्मीद में
ज़िंदगी में कुछ सुहाने ख्वाब तो पलते रहे

बेगुनाही की सजा कोई सहेगा कब तलक
हो न तौहीने अदालत हम गुनह करते रहे

दे रहे फांसी सलीबों को सियासतदां यहाँ
फैसले दे कर भी मुंसिफ हाँथ ही मलते रहे

जब भी भ्रष्टाचार की दरिया से टूटा सब्रे बंद
लोग सड़कों पर उतर कर फैसले करते रहे

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