Wednesday, November 16, 2011

जो इन्सां को इन्सां नहीं मानते हैं
यकीनन खुदा को नहीं जानते हैं

यूँ रूठे हैं जैसे हों किस्मत हमारी
न वो मानती है न ये मानते हैं

हम इंसान की बस्तियां ढूँढने को
जमीं छोड़ कर आसमां छानते हैं

जब अपनों से खाते हैं धोखे पे धोखा
तभी पार्थ गांडीव संधानते हैं

पड़े उनकी दुखती हुई रग पे उंगली
तो नजरें हटा कर भवें तानते हैं

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