Friday, August 5, 2011

मुहब्बत हो गयी है शायरी से



बहुत बेज़ार थे हम ज़िंदगी से
मुहब्बत हो गयी है शायरी से

नहीं है कोई शिकवा अब किसी से
मुहब्बत हो गयी है शायरी से

हमारा नाम दरवाजे पे उनके
लिखा होगा कभी हर्फे जली से

ज़नाजे को उठाना तो अज़ीजों
गुजरना ले के तुम उनकी गली से

हुए जाते हैं मुझसे दूर जैसे
निकाले कोई कस्तूरी जबी* से मृग, हिरन

उदासी का सबब उनसे जो पूछा
हिलाया सर बड़ी ही सादगी से

बहुत छोटे बड़े देखे जहां में
खुदा मुझको मिला इक आदमी से

घुटा जाता हैं दम कुदरत का देखो
हमारी खुदपरस्ती, बेहिसी* से लापरवाही

फकत कुछ मोहरे बदले हैं लोगों
अवाम अब भी नहीं बदली रिही* से दास, गुलाम

हो अख्लाकन सही पर रंज में भी
मिला करता हूँ मैं दरियादिली से

बता दे चाँद को औकात उसकी
दिखा चेहरा निकल कर तीरगी से

हमें इंसान क्यूँ कहते नहीं हैं
चलो पूंछें ये पंडित मौलवी से

उदासी ओढकर सोयेंगे कब तक
नहीं होते खफा यूँ ज़िंदगी से

लिपट कर मुफलिसी की चादरों में
निकलती है गरीबी हर गली से

किसी दिन धूप को मुट्ठी में लेकर
करूँगा मैं ठिठोली तीरगी से

मेरे हिस्से में बादल हैं कहाँ अब
नहीं है साबका मेरा नमी से

गिरा अब तक नहीं ये आसमां क्यूँ
जमीर ईमां सदाकत की कमी से

चले इस आस में हम सूये सहरा
मिले राहत वहीं पर तश्नगी से

भुला दे किस तरह माजी को अपने
मुहब्बत है उसे दिल की लगी से

अगर इखलास है उल्फत में अपनी
मिला करता खुदा खुद आदमी से

नहीं हो आसमां जब उसके माफिक
कफस में बैठती चिड़िया खुशी से

मैं हूँ औलाद आदम की, डरूं क्यूँ
है हक जन्नत पे,मांगूं क्यूँ किसीसे

दिला दो गर यकीं अपनी खुशी का
मैं दुनिया छोड़ दूं अपनी खुशी से

दिखा दे यार मेरे मुस्कराकर
घुटा जाता है दम संजीदगी से

हम अपनी मौत को ठुकरा चुके है
हमारा कौल था कुछ ज़िंदगी से

धड़कना बंद कर दे दिल जो मेरा
सुकूं मिल जाए इसको बेकली से

अज़ाबे ज़िंदगी हैरत ज़दा है
बुझी है आग पलकों की नमी से

महल में होती गर मेरी रहाइश
तो होते दूर हम भी हर खुशी से

उसी के पास है ईमां की दौलत
लडा करता है जो फांकाकशी से

ये आंसू बेअसर है संगदिल पर
जमी पत्थर पे भी काई नमी से

2 comments:

  1. sabhi ek se badh kar ek
    balki kahen ek sher hai to dusara sava sher
    ek hi bhar-raddif-kaafiye men itane sare sher nikaalane ke liye dili daad kubul farmaayen tivaarii saaheb :)

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