Thursday, July 28, 2011

ढाई आखर


हमें भी ढाई आखर का अगर संज्ञान हो जाए  
वही गीता भी हो जाए वही कुरआन हो जाए

मजाज़ी औ हक़ीक़ी का अगर मीज़ान हो जाए
मेरा इज़हार यारों मीर का दीवान हो जाए

जला कर ख़ाक करना, कब्ल उसके ये दुआ देना
कि मेरा जिस्म सारा खुद ब खुद लोबान हो जाए

खुदा को भूलने वालों तुम्हारा हस्र क्या होगा
खुदा तुमसे अगर मुह मोड ले, अनजान हो जाए

मजारें चादरों से ढक गयीं पर खल्क नंगी है
हमारे रहनुमाओं वाइजों को ज्ञान हो जाए

सभी घर मंदिर-ओ-मस्जिद में खुद तब्दील हो जाएँ
अगर इंसानियत इंसान की पहचान हो जाए

मेरे हाँथों से भी नेकी भरा कुछ काम करवा दे
जहां छोडूं तो हर नेकी मेरी उन्ह्वान हो जाए


हमें अब आस्तीनों में भी अपने झांकना होगा  
छुपे हैं साँप जो उनकी हमें पहचान हो जाए 


तेरे भाई ही बन बैठे हों गर दुश्मन तो ऐ अर्जुन 
उठा गांडीव फिर से आज सर संधान हो जाए 

परिंदे मगरिबी आबो हवा के शेष शैदा हैं  
कहीं ऐसा न हो अपना चमन वीरान हो जाए

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