Sunday, May 1, 2011

चाँद का पहरा


अगर रातों पे हमदम चाँद का पहरा नहीं होता 
हमारा ज़ख्मे दिल भी इस क़दर गहरा नहीं होता


नहीं मिलतीं अगर सागर से बलखाती हुई नदियाँ 
समंदर अब तलक अपनी जगह ठहरा नहीं होता 


भले धोखा सही लेकिन झलक पानी की दिखती है 
कोई राही वगरना दाखिले सहरा नहीं होता 


नहीं दिखता मगर बेटे को को मां पहचान लेती है 
नज़र में उसकी उस जैसा कोई चेहरा नहीं होता 


सदाएं शोर सी गर गूंजती होतीं नहीं हर सू 
खुदाया! जानता हूँ, तू कभी बहरा नहीं होता

4 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....!!

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  2. नहीं मिलतीं अगर सागर से बलखाती हुई नदियाँ
    समंदर अब तलक अपनी जगह ठहरा नहीं होता
    waah.... kaafi gahri abhivyakti

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  3. कैसे कहूँ को कैसे धन्यवाद कहूँ फिर भी धन्यवाद.
    रश्मि प्रभा जी .... बहुत बहुत धन्यवाद.
    दिनेश मिश्र जी, बहुत खुशी हुई पंडित जी आपको यहाँ देखकर. शुक्रिया.

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