Monday, February 21, 2011

आरजू

मेरी आरजू, ले दुश्मनी को साथ, मर जाऊँ
जो हैं आज दुश्मन, मैं उन्हें भी दोस्त कर, जाऊँ

'जालिम है ज़माना', सुन रहे हैं हम जमाने से
'हम से है ज़माना' इस कथन को सत्य कर जाऊँ

जिसको पूजते, हम पूजते, चाहे रहे नाखुश
कर के हर जतन, नाराजगी को दूर कर जाऊँ

छोटा हो बड़ा हो, दोस्ती में उम्र बेमतलब
पीढ़ी के लिए इस सत्य को उनवान कर कर जाऊँ

हम सहते रहे, हँसते रहे, बढते रहे आगे
इसको जान के ही वो सुधर जाएँ, मैं तर जाऊँ

जाना है तो जाऊँगा, खुशी से, मैं खुदा के घर
अपने बाप से मिलना है मुझको, क्यों मैं डर जाऊँ

पहलू में तुम्हारे ही कटे हैं दिन बुरे अच्छे
रुखसत हो रहा हूँ, आज क्यों मैं और दर जाऊँ

जो दुश्मन बना है आज था वो भी कभी अपना
उसने हैं किये एहसान, कैसे मैं मुकर जाऊँ

रोये या हँसे कोई, फर्क क्या 'शेष' को पड़ता
रोया जो कभी मेरे लिए, हँस दे तो घर जाऊँ



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