आँखों में सपने बसते हैं
आँसू भी हंसने लगते हैं
कितना है आराम यहाँ पर
कब्रों में मुर्दे कहते हैं
जिंदा रहने की कोशिश में
हम जाने कितना मरते हैं
दुनिया रहने क़े नाकाबिल
फिर भी तजने से डरते हैं
फ़र्ज़ निभाना मुश्किल इतना
इक दूजे का मुह तकते हैं
उसने तो इंसान बनाया
हम हिन्दू मुस्लिम बनते हैं
मिट्टी क़े घर होते जिनके
उनके घर ईश्वर रहते हैं
पी कर दूध ज़हर उगले जो
उसको ही बिषधर कहते हैं
No comments:
Post a Comment