Thursday, January 13, 2011

मेरी माँ

स्नेह सिक्त मुख मंडल
आँखें समुद्र सी गहरी
ज्यों देख रही हो छितिज क़े उस पार
तेज ऐसा की सूरज को भी ढाढस दे
चेहरे का संतोष भाव ऐसा
जैसे दिया हो सृष्टि को अभयदान
मुस्कराहट ऐसी जैसे अभी अभी 
दिया हो विधाता को
सृष्टि संचालन का पूर्ण ज्ञान
गुरुता का विश्वास
जैसे देवता लगाए हों आस
की सर पर रख कर हाँथ,
सभी को देगी आशीष

ऐसी तेजस है मेरी माँ
पल्लू क़े कोने बंधे
कुछ नोट और कुछ सिक्के
सदैव समर्थ, सब क़े लिए
किसी को भी आवश्यकता हो
सबसे पहले जाता है हाँथ उसका
खूंटे गठियाई अपनी अक्षय पूंजी पर
खोल देती है खजाना कुबेर का
ऐसी धनी और संपन्न है मेरी माँ
सामने उसके जब भी पडून
एक प्रश्न खड़ा रहता है
शास्वत सत्य सा
"कुछ खाया ?" 
"हाँ माँ" सुनके 
मिट जाती है भूख उसकी
कितनी चिंता रहती है उसे
मेरे बच्चों की
प्रतिदिन वही सवाल
कुछ हाल चाल मिला?
फोन आया था?
फ़ोन किया था?
पर लगता है जैसे पूँछ रही हो पहली बार.
बच्चों से बात करने को
हांथो में फोन लेते ही
समाप्त हो जाता है नियंत्रण उसका
अपने आंसुओं पर
पर उसके वो आँसू भी
हँसते हुए लगते हैं.
ऐसी ममतामयी है मेरी माँ

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