Saturday, January 15, 2011

खुदा की मार

दिलासा बाप की माँ की दुआ बेकार लगती है
जो बेटी हो दुखी तो हर हंसी बीमार लगती है 

हमारे सुख में मेरे साथ जो रहते थे अब उनको 
मेरे दुःख में मेरी हर बात अब मनुहार लगती है `

गरीबी जब घने जंगल में रस्ता भूल जाती है  
रखी काँधे पे लकड़ी ही चिता तैयार लगती है 

घने बादल बरस जाने को जब बेताब होते हैं
गरज उनकी गरीबों को खुदा की मार लगती है 

हमारी बेहिसी से दम घुटा जाता है कुदरत का 
हमें हर मुल्क की आबो हवा बीमार लगती है 

हमें लिखना नहीं आता हमें पढना नहीं आता
तरक्की में यही रस्ते खड़ी दीवार लगती है 

किसी बेवा औ बिनब्याही में इतना फर्क होता है 
कि इक की नौकरी छूटी है इक बेकार लगती है        

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