Friday, January 21, 2011

गुमां बेकार है

जो नहीं होता है ये सरकार जिम्मेदार है
विश्व की आलोचना का आप को अधिकार है 

आज संगम के किनारे कडकडाती ठण्ड में
मुक्ति पा लेने को बूढी जान के बीमार है

पूज के पत्थर हमें इन्सां को खुश करना पड़े
संग से भी संगदिल इंसान को धिक्कार है

एक मुट्ठी रेत सी है हाथ सबके ज़िंदगी
फिर न जाने क्यूँ कहे हर एक वो सरदार है

जब तड़प कर बोलता सिन्दूर रुकने क़े लिए
चाह का दीदार से होता शुरू अभिसार है

सिसकियाँ लेकर कहे श्रृंगार जब दिल की ब्यथा
अनसुनी करना इसे इक असंभव आचार है

दर्द दिल का बढ़ चुका इतना सहन होता नहीं
धडकना इसका रुके ये भी मुझे स्वीकार है

बारहा आँखों को धोने से तो कुछ होगा नहीं
छुप गयी पर यूँ न रुकती आंसुओं की धार है

रात जब करवट बदलती दर्द से बेहाल हो
तब गुलों क़े बीच लेती मधुकली आकार है

फूल का शव देख कर इक सिहर जाती है कली
जिन्दगी बस मौत का चलता सा कारोबार है

एक दिन में तो मुकम्मल शायरी होती नहीं 
"शेष" जैसे तालिबों का ये गुमां बेकार है 


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