Tuesday, January 11, 2011

आदमी

मैं कभी उस आदमी को आदमी न कह सका
बन गया खुद से बड़ा पर आदमी न रह सका

धौंस साहिल पे समंदर जमाता रहता मगर
एक पल भी दूर साहिल से कभी क्या रह सका

चाँद सूरज के सहारे ही चमकता है मगर
क्या वो सूरज को ग्रहण का दुःख दिए बिन रह सका

कर रहा परवाज सच से बेखबर, पाले भरम
बाज़ भी महफूज़ जंगल में कभी क्या रह सका

मौत सच है, जिंदगी है इक भरम, ये सत्य है
क्या कभी हंस कर कोई ये जिन्दगी से कह सका

No comments:

Post a Comment