नाचना कठपुतलियों सा पड़ रहा सरदार को
एक गुड्डे ने नचा के रख दिया सरकार को
गांधारी को खुली आँखों से भी दिखता नहीं
ब्यूह रचना में लगी अभिमन्यु के संहार को
घर से बेघर हो गए तो भी हमें कुछ गम नहीं
रौजने दीवार से देखा करेंगे यार को
भीड़ में तनहा खडा मैं ढूंढता जाने किसे
काश कोई पास मेरे भेंजता गमखार को
जोर की बारिश मेरे सर पे न गिरती बूँद भी
मैं तरसता हूँ तुम्हारी रहमतों की धार को
आँख हो जाए समन्दर तो जिगर फौलाद कर
रोक मत अन्दर से तेरे उठ रही हुंकार को
"शेष" ने जो कह दिया वो हर्फे आखिर है नहीं
कर बयां मत रोक अपने ज़ज्बा-ए दमदार को
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