लोकतंत्र
कभी देखा है क्या दस्तार का ताजिर जमाने में
तू अपनी आबरू को रख बचा के आशियाने में
गरीबों की दुवाओं से वो बनना चाहते पी एम
यही मंशा लिए आते हैं गाँव, गरीबखाने में
हमें तो दिख रहे हर शाख पर बैठे हुए उल्लू
लगे हैं रहनुमा सारे हमें उल्लू बनाने में
खड़े होते हैं जोड़े हाँथ जब भी वोट लेना हो
हुकूमत पा गए फिर क्या रहम डंडा चलाने में
हमें मूरख समझते हैं नहीं इनको शरम आती
मजा आता है इनको प्याज के आंसू रुलाने में
बड़े खुश्बख्त हैं वो दश्त जिनका आशियाना "शेष "
शहर का हाल तो अब है अयाँ हर इक फ़साने में
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