Sunday, January 2, 2011

जिन्दगी


ये गगन झुकता है धरती से मिलन की चाह से
बांह धरती की मगर खुलती है कब किस राह से

छाँव जो अठखेलियाँ करती लिपट कर धूप से 
दोस्ती  ये है पुरानी चाह की परवाह से 

जो सफल हैं करो उनका ही सदा तुम अनुकरण 
थाह सागर की नहीं मिलती नदी की थाह से 

समय जा कर फिर कभी भी लौट कर आता नहीं 
वर्ष को चाहो शुरू कर लो किसी भी माह से 

धूप से तो बच गयी चिड़िया फंसी कमरे में अब  
चोंच खिड़की पर पटकती और डरती छाँह से 

चाँद है गर आसमां पे इस जमीं पे तुम तो हो 
क्यूँ सितारे इस जमीं क़े घूमते गुमराह से  

बीच में सुख और दुःख क़े है ये पसरी जिन्दगी
करवटें तो बदलती है पर खुदा की चाह से 

1 comment:

  1. नमस्कार भाई बहुत अच्छी रचना है

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