कब्र पर बाद में भी वो आते रहे
दफ्न करके भी मुझको जलाते रहे
सांप को हम संपेरा बनाते रहे
बाद में खुद को उससे बचाते रहे
हम न समझे थे उनका इशारा, तभी
देख मुझको वो आँचल गिराते रहे
गम का मारा हँसा रोते रोते, जिसे
कह के पागल हमेशा बुलाते रहे
कोई साथी हमें मिल न जाए नया
मेरी यादों में चक्कर लगाते रहे
कह के मोती या दरिया मेरे अश्कों को
लोग मखौल मेरा उड़ाते रहे
बाद दफनाने के कौन उम्मीद थी
कब्र को देख आँसू बहाते रहे
मेरे दामन के कांटे न घायल करें
दूर फूलों से हम खुद ही जाते रहे
वो ख़ुशी से चला जाय, ये सोचकर
अपनी नाराजगी हम छुपाते रहे
संगदिल एक इंसान हमको मिला
मान भगवान उसको रिझाते रहे
हो गया "शेष" खारा समंदर जभी
बैठ साहिल पे आँसू बहाते रहे
शेषधर तिवारी जी
ReplyDeleteअच्छी शायरी कर लेते हैं आप तो …
कब्र पर बाद में भी वो आते रहे
दफ़्न करके भी मुझको जलाते रहे
क्या बात है जी !
बाद दफनाने के कौन उम्मीद थी
कब्र को देख आंसू बहाते रहे
वाह वाऽऽह ! छा गए जी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
धन्यवाद राजेंद्र जी. कर लेता हूँ ऐसे ही.
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