Saturday, November 27, 2010

अलख

आप यूँ ही सदा मुस्कराते रहें 
अपनी अर्थी को हंस कर सजाते रहें

क्यूँ भरोसा करें हम किसी और पर
खुद हमी अपना मातम मनाते रहें

आएगी जब मुसीबत तो सोचेंगे हम
क्यूँ अभी से हम आंसू बहाते रहें

हो सकेंगे न शामिल जनाज़े में जो
उनकी अर्थी को कांधा लगाते रहें

बद्दुवाओं से कोई भी मरता नहीं
कर दुवा क्यूँ न एहसां जताते रहें 

जो किनारा किये जिक्र से भी मेरे
गीत उनके ही हम गुनगुनाते रहें

जिनकी ऑंखें हुईं नम मेरे हाल पे 
है दुवा वो सदा खिलखिलाते रहें

मेरी शालीनता को न समझें कमी 
ये हकीकत उन्हें हम बताते रहें 

जी करेगा भरेगा वही है ये तय 
ये अलख बारहा हम जगाते रहें 

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