Saturday, November 20, 2010

फ़र्ज़ पाकीज़ा

लिए जाँ को हथेली में जवाँ दिल मुस्कराता है
मुझे करगिल शहीदों का फ़साना याद आता है

कभी जब देखता हूँ मैं ज़नाज़ा देश वीरों का
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है

खिलाया होगा इनको भी किसी माँ बाप ने गोंदी
उन्हें किस हाल में रोता बिलखता छोड़ जाता है

निभाने फ़र्ज़ पाकीज़ा वो अपने देश की खातिर 
सुरीली लोरियाँ माँ की दीवाना भूल जाता है 

उन्होंने भी करी होंगी किसी के प्यार की पूजा 
बिना जिसके जिए कोई कभी सोचा न जाता है 

शहीदों की चिताएँ देख बूढ़े भी उबलते है
जवानी लौट आती है बुढापा भाग जाता है 

1 comment:

  1. तिवारी जी बहुत ही उम्दा और पूरअसर खयालातों वाली ग़ज़ल पढ़ना वाकई अच्छा लगा|

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