Saturday, November 13, 2010

उम्मीद

जैसा भी हो नसीब मगर दिन तो कटेगा
मुफ्लिस तो पेट के लिये दिन- रात खटेगा

पाओं में आबले हैं , बड़ी दूर मनाज़िल
पुरख़ार रास्ते है, चलो, दर्द बँटेगा

वाइज़ का मोज़िज़ा मै बहुत देख चुका हूँ
अब अपनी रोशनी से ये अन्धेर घटेगा

मुझको यकीं है वो जो अभी तक है तहाजुल
डट जाउँगा अगर तो मेरे साथ डटेगा

सब दे दिया है इसलिये बनना न खरीदार
मौला भी ताज़िरों को कयामत पे जटेगा

सबको गले लगाओ मगर सोच समझ कर
काँटो से दिल लगाओ तो दामन तो फटेगा

दुश्मन कोई नहीं है अगर जान लिया है
इल्ज़ामे- दुश्मनी भी तिरे सर से हटेगा

5 comments:

  1. बहुत उम्दा रचना है सर जी ....
    वाह-वाह-वाह .

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  2. खुबसूरत गज़ल हर शेर दाद के क़ाबिल, मुबारक हो

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  3. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया ..............माफी चाहता हूँ..

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