करती है तैयार तुम्हे दिन भर कि कठिन यात्रा को
क्यूँ उसके श्रींगार का तुमने यूँ ही तिरस्कार कर दिया
क्या उषा अब उद्दीपन का साधन बन रह जायेगी
क्यूँ संध्या के माथे में इतना सारा सिन्दूर भर दिया
तेरी अवहेला को अब वो और नहीं सह पाएगी
माँग सजाने को दूजे की साधन नहीं जुटाएगी
जिस दिन उसने आँख मूद ली तू अंधा हो जाएगा
फिर संध्या का इंतज़ार कितना लम्बा हो जाएगा
सुन्दर रचना. शुभकामनाएं
ReplyDeletebahut achhi rachana.
ReplyDelete......... प्रशंसनीय रचना - बधाई
ReplyDeleteThanks to all.
ReplyDeleteSanjay Ji, thanks for following. I will certainly vist your blog and follow too.