Wednesday, October 6, 2010

कशमकश









कोई नहीं कि गुनाहों से रोकता है मुझे
मेरा जमीर ही अक्सर झिझोड़ता है मुझे 

कोई तदबीर ऐसी मुझको सूझती ही नहीं
बेरहम दुनिया का दस्तूर टोकता है मुझे

जिसने छीना है उसे मार तो डालूँ लेकिन
तुम्हारी माँग का सिन्दूर रोकता है मुझे

सोचता हूँ अभी भी क्यूँ तेरी ही बावत मैं
ये ख़याल भी रह रह के कोसता है मुझे

जी करता है मैं किसी को खा जाऊं कच्चा
मेरा ज़मीर खुद मुझको परोसता है मुझे

उफ़ तेरे लब, तेरे आरिज़, तेरी कुशादा जबीं 
मैं इन्हें  खोजूं, दिल मेरा खोजता है मुझे 

1 comment:

  1. बहुत ही सुंदर ...पढने के बाद भी कशमकश जारी है

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