Friday, September 10, 2010

अभी भी आस है

मेरी मुहबोली बहन है यास्मीन

पुराना पारिवारिक रिश्ता है हमारा
तीज त्यौहार, शादी विवाह में
भागीदार होते हैं हम
कल यास्मीन ने जो बताया वही लिख रहा हूँ
सच है ये, कविता नहीं है.
सात आठ साल की एक बच्ची
फिज़ा  नाम  है उसका
दादा दादी के साथ गयी थी मेले में
एक दुकान पर बिक रहे थे
लकड़ी के बने
देवी देवताओं के मंदिर
फिज़ा  की निगाह टिक गयी
एक छोटे से मंदिर पर
दादा से बोली, मुझे लेना है ये मंदिर
दादा दादी एक दूसरे  का मुह देख
उसे बहलाने की कोशिश करने लगे
उस नन्ही जान को
समझाया अल्लाह, समझाया भगवान्
समझाया हिन्दू, समझाया मुसलमान
समझाया गीता, समझाया क़ुरान 
किसी तरह उसे दुकान से हटाया
घर लौटी तो फिजा थी चुपचाप
जैसे सवाल कर  रही हो
और जवाब भी दे रही हो अपने आप
कुछ दिन बाद एक मित्र का
शादी का निमंत्रण पत्र मिला
गणेश जी का चित्र था बना
नज़र पड़ी फिजा की
उठाया और बोली दादी!
गणेश जी को कहा है रखना?
दादी जी, अगर उस दिन थोड़ी देर के लिए
बन जाते हिन्दू और खरीद लाते मंदिर
तो क्या बिगड़ जाता?
गणेश जी को इस घर में भी
एक घर मिल जाता
इतना बताने के बाद यास्मीन बोली
इतनी पाक सोच के बच्चों के मन में
जहर कैसे घुल जाता है?
फिर हम दोनों एक दूसरे को
शर्मिंदगी भरी  सवालिया निगाह से देखते रहे
जैसे एक दूसरे से कह रहे हों
कि जवाब तो हम दोनों के पास है
पर इन बच्चों के ज़ज्बात से लगता है
अभी भी आस है

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