Monday, September 27, 2010

आशा

चमरौधे जूते की 
चरर मरर चरर मरर
टेढ़ी पगडंडी पर चलता हुआ  
मूछों पर ताव ऐसे
जैसे तलवार हो, महाराणा की
सीना लिकला हुवा यूँ, जैसे 
गर्व समा न रहा हो इसमें
तय करता है सफ़र, जैसे 
बिगडैल घोड़े की लगाम थामे
पैरों को जमा रखा हो 
पायदान पर  
और जानता हो कि
जा नहीं सकती ये पगडंडी 
मंजिल के सिवा कहीं और 
बेफिक्री ऐसी कि जैसे 
दे आया हो सारी दुनियाँ को 
जीने का मकसद
और जरूरी साजो सामन 
भरता हो पेट जैसे 
सारी कायनात का 
एक लम्बी डकार लेके 
कर दिया एलान 
कि आज भरा है पेट उसका 
कई दिनों बाद, माँ ने खिलाया
सामने बिठा के 
शायद उसे तो नहीं 
पर माँ को पता था 
कल के लिए रोटियाँ हों न हों
आज तो खा ले बेटा भर पेट  
आज है बेकार तो क्या हुआ
कल यही तो बनेगा 
घर का सहारा
हर दिन एक जैसा नहीं रहता
बेटा सदा ही बेटा नहीं रहता
समय के साथ 
ओढ़ लेता है जिम्मेदारियों को
अपने आप 
बेटा भी एक दिन बनता है बाप

1 comment:

  1. rediculous ... really .. in our system,it is believed ..son is everything....there is a great hope...

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