Thursday, February 2, 2012

कितने झूठे हैं हम ?

रखा था नये संबंधों की सीढ़ी पर 
एक कदम 
उत्साह और उमंग से भरा 
सजने लगे थे ख़्वाब 
सुख दुःख बांटने के 
खुशियाँ बाँट कर 
खुशी से भरे चेहरे देखने के 
दुःख बाँट कर 
अपनी सहनशीलता बढाने के 
महसूस करने लगा था 
अपने आँसू बहते हुए 
किसी कंधे पर 
और कई धड़कने अपने सीने में 
देने लगा था सबल दिलासा 
सिसकियों को 
जीने लगा था 
वसुधैव कुटुम्बकम को 
पर ये क्या हुआ????
खीच ली किसी ने 
पैरों के नीचे से जमीन 
टूट गया मेरा ख़्वाब 
पाया अपने को 
उन्ही अपनों के बीच 
जो यथार्थ हैं 
जिन्हें सिद्ध नही करना है 
कुछ भी 
जो रहे हैं, रहेंगे, सदैव मेरे, 
केवल मेरे 
सुख में, दुःख में 
एक दूसरे में आत्मसात 
विवश हूँ सोचने को
अंतर क्या है 
जानवर और इंसान में 
अपनों को मानते हैं अपना
तो पशु पक्षी भी 
पहचानते हैं, प्यार करते हैं 
फिर हम क्यूँ करते हैं गर्व 
अपनी मनुष्यता पर 
क्या हम पूरे मानव बन पाए हैं?
शायद नही 
अभी भी ज़िंदा है 
जानवर हमारे भीतर 
और हम पाल रहे हैं 
पालते रहेंगे उसे
अपनी संकुचित सोच से 
और करते रहेंगे दंभ 
अपनी तथाकथित मनुष्यता पर 
कितने झूठे हैं हम ?


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