Sunday, January 29, 2012

बिना मरे तो कोई भी अमर नहीं होता

सिफर सिफर ही सही बेअसर नही होता 
बिना सिफर के कभी इक अशर नही होता ..........अशर - दस की संख्या दस   


हमें वहाँ भी मुश्किलों का डर नही होता 
सफर में कोई जहाँ हमसफ़र नही होता


जहाँ न बांट सकें लोग आपसी सुख दुःख    
मकान कह लो उसे पर वो घर नही होता


मुआफ करता नही मैं रुलाने वाले को  
जो उसका मेरे ही काँधे पे सर नही होता


पढूं इक आँख से गीता क़ुरान दूजी से 
किसी भी और में मुझसा हुनर नही होता         


बिगड़ गयी है कोई बात दरमियाँ वरना
यूँ आसमां का जमी पे कहर नही होत
 
संभालना है जतन से हर एक कतरे को
गला कोई भी बिना आब तर नही होता  .......... आब - पानी 


पड़ा न होता वहीं पर ये समन्दर अब तक
जो उसकी चाह में पागल क़मर नही होता


मरूं जो अम्नो अमां के लिए तो गम कैसा
बिना मरे तो कोई भी अमर नहीं होता


वहाँ भी चाहो हमें आजमा के देखो तुम
कि मोतबर भी जहाँ मोतबर नही होता


ये आसमान है छत औ जमीं मेरा बिस्तर
रहूँ कहीं भी, कभी दर बदर नही होता


खडा हूँ राह में बस मन तुम्हारा रखने को 
बगरना भीड़ का हिस्सा ये सर नहीं होता 


गुजारी हंस के जो खारों में ज़िंदगी मैंने  
गुलों के साथ अब अपना बसर नहीं होता 


गुमां है जान गया है वो हकीकत मेरी 
हकीक़तों से जो खुद बाखबर नही होता 







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