Saturday, December 3, 2011

लो, सियासत रंग दिखलाने लगी
हर सड़क फिर गाँव को जाने लगी

खामुशी जब आज चिल्लाने लगी
रोशनी से रात घबराने लगी

कैसा बेमौसम का आया मानसून 
बादलों की खेप मडराने लगी

जो गरीबी भूख से बेहाल थी
हाजमे की गोलियाँ खाने लगीं

फिर से उम्मीदों की लालीपाप ले
मुफलिसी भी नाचने गाने लगी

चाह धरती पर चमकने की लिए
बदलियों को धूप बहकाने लगी






2 comments:

  1. खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार कीजिए, शेषधर जी।

    ReplyDelete
  2. धन्यवाद धर्मेन्द्र जी

    ReplyDelete