Friday, October 14, 2011


बे नजर है अद्ल, आजम कभी था न है न होगा ........ अद्ल - न्याय , आजम - गूँगा
जो न सच सुने वो आज़म कभी था न है न होगा .........आज़म - श्रेष्ठ

जग जीत कर जहां से जगजीत था गया जो
सुर से जुदा तो सरगम कभी था न है न होगा

मुझे छोड़ कर गया जो था वो राह का मुसाफिर
मेरा यार मुझसे बरहम कभी था न है न होगा

जो सभी के काम आये, है मकाम उसका ऊंचा
न शरफ़ करीम का कम कभी था न है न होगा  .........शरफ़ - श्रेष्ठता , करीम - दानी 

तुझे चाहता बहुत है वो ज़हीन है मगर कुछ
तेरी चाह का मुजस्सम कभी था न है न होगा

है खराब जिसकी नीयत करे लाख बार कोशिश 
वो शरीक़े आबे ज़मज़म कभी था न है न होगा ....... आबे ज़मज़म - मक्का के पवित्र कुएं का जल 

लबे तिश्नगी समंदर की बुझा रहा है दरिया  ...........तिश्नगी - प्यास
न समन्दरों में ये दम कभी था न है न होगा

1 comment:

  1. कठिन बहर पर खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें तिवारी जी


    गुजर गया एक साल

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