Tuesday, August 30, 2011

है मुन्तजिर नहीं ये किसी के बखान की
ये शायरी ज़बां है किसी बेज़बान की


होने लगा है मुझको गुमां कहता हूँ ग़ज़ल
मैं धूल भी नहीं हूँ अभी इस जुबान की


ढूँढा किये हैं ज़िन्दगी को झुक के ख़ाक में
यूँ मिल गयी है शक्ल कमर को कमान की


जिसमे खिली हुई वो कली भा गयी मुझे
करता हूँ मैं सताइश उसी फूलदान की        


धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की


जिसमे मुझे ही दफ्न किया चाहते थे वो
उनको है चाह आज मेरे उस मकान की


खाते रहे जो छीन कर औरों की रोटियाँ
होने लगी है फ़िक्र उन्हें भी किसान की


2 comments:

  1. आप की लेखनी से एक और शानदार ग़ज़ल| बधाई तिवारी जी

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  2. धिक्कारती है रूह, इसी वज्ह, शर्म से
    आँखें झुकी रही हैं सदा बेईमान की
    badhiyaa

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