Monday, February 7, 2011

परवाज़


हवा जो आ रही नम आज कुछ जादा ही भाती है
किसी की आँख का सारा समंदर सोंख आती है

वो जब आकाश को परवाज़ क़े काबिल नहीं पाती
तो चिड़िया खुद ब खुद पिंजरे में आकर बैठ जाती है

तडपता जिस्म मेरा काश शीशे का बना होता
उसे दिखता कि उसकी याद मेरा दिल जलाती है

उसे मालूम है गमखार उसका जन्म से अंधा
मगर फिर भी उसी क़े सामने आँसू बहाती है

हमारे दर्द को कोई समझ ले है ये नामुमकिन
कोई भी आँख छाले रूह क़े कब देख पाती है

किसी के इस गुमां पर आज मन ही मन मैं हंसता हूँ
कि मैं दिन रात रोता हूँ, कि उनकी याद आती है

तपिश चाहत में हो औ सोज हो ज़ज्बात में पैहम 
तो जिद की बर्फ धीरे ही सही पर गल तो जाती है

किसी भी राह को चुनिए अगर ईमानदारी से
तो हर रस्ते पे चलकर मंजिले-मक़सूद आती है

खुदा तू ही बता किस नाम से तुझको पुकारूं मैं
तेरे बन्दों को समझाने में मुश्किल पेश आती है

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