Saturday, January 29, 2011

ये तो लड़की है

एक बुलबुला
उतराने को उतावला, बेखबर
अपने अस्तित्व से
आया जब ऊपर
एक आवाज के साथ
मिट गया उसका अस्तित्व
......................
मैं भी थी बहुत उतावली
बाहर आने को
माँ की कोख से
आयी......
लगा जैसे रात की कोख से
जनम लिया
एक नन्ही सुबह ने
शबनम की बूँद की तरह
मैंने माँ के चेहरे पर कौतूहल भरा
एक प्रश्न चिन्ह देखा था
किसी ने मुझे हिलाया, डुलाया
और फिर दिखी
एक निराशा की झलक
उसके चेहरे पर
पर किसी ने जाने क्या कह दिया
शबनम की आँखों से बह निकले आंसू 
मेरे श्रवण-पटल पर 
कुछ शब्द उकेर दिए गए
"ये तो लड़की है"
और फट गया बुलबुला
इसी आवाज़ के साथ
तब से लेकर अब तक
जीवन के हर पल
श्रवण पटल पर उकेरी गयी
वह आवाज़
सदैव मुझे सुनाई पड़ती है
"ये तो लड़की है"
किसी के चेहरे पर
मुझे खुशी का भाव नहीं दिखा
सब के सब मातम में डूबे थे
और ये शब्द मुझे सब के चहरों पर
मेरे ही खून से लिखे दिखाई दिए
"ये तो लड़की है"
........
बड़ी होती गयी मैं वक़्त के साथ
और बढ़ता गया एक एहसास
कि नहीं हूँ मैं किसी की चाहत
श्रवण पटल पर उकेरे वो शब्द
अब मानस पटल पर अंकित हो गए हैं
जब होती हूँ बाबा के पास
देखती हूँ असीम प्यार उनकी आँखों में
पर कुछ और भी होता है उनमे
समझने लगी हूँ अब मैं उस बेबसी को
लगता है रो देंगे
अगर रुकी मैं थोड़ी देर और उनके पास
चल देती हूँ पर बाबा पकड़ लेते हैं हाँथ
और सीने से लगा
बहा ही लेते हैं अपने आंसू
मेरे अंदर उबलने लगता है
एक ज्वालामुखी
चाहती हूँ, भस्म कर दूँ
उन सारी व्यवस्थाओं को
जो बाप और बेटी के बीच
बो देती हैं आंसू
............
कभी हलके पलों में
माँ बाबा के बीच बैठी मैं करती हूँ सामना
एक परम आत्मीय प्रश्न का
"बोल गुडिया, किसकी बेटी है, बाबा की या माँ की?"
मेरे अंतर्मन चीत्कार करता है
कहता है कि मैं नहीं हूँ किसी की
पर बोल नहीं पाती
अनायास मिले उन पलों को खोना नहीं चाहती
हंस देती हूँ और मेरे दोनों गालों पर
चिपक जाते हैं चुम्बन
रो देती हूँ मैं खुशी से
पर जल उठती हूँ अंदर से
जी करता है जोर से चिल्लाकर कहूँ
"मैं लड़की नहीं हूँ ... मैं अपने माँ बाबा की गुडिया हूँ"
":मैं तो बिटिया हूँ "





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