Wednesday, November 10, 2010

सब्र तो करो

यूँ रोते नही शामो –सहर , सब्र तो करो 
कहती है अभी राहगुज़र सब्र तो करो 

दुनिया जो मुक़ाबिल है कहो पूजने लगे
ऐ मेरे जवाँ ज़ख्मे-जिगर सब्र तो करो 

धरती में निहाँ सोज़ कोई अब्र बन गया 
जब दिल का धुआँ जाये ठहर सब्र तो करो 

छालों के कई दाग दिये खैरख्वाह ने 
चमकेंगे यही दाग़ मगर सब्र तो करो 

जो धूप बिखेरे है वही बख़्श दे कभी 
ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव बशर सब्र तो करो 

आती है उसे शर्म मिरे साथ आज, पर 
कल खुद पे लजायेगी नज़र सब्र तो करो 

इक रोज़ मुहब्बत का उसे भी लगेगा रोग 
जायेंगे तिरे भाग सँवर सब्र तो करो 

इस वज़्ह तुम्हें ज़ख्म दिये जा रहे है, वो 
मरहम भी लगायेंगे, मगर सब्र तो करो 

मंज़िल के लिये शहर में घूमो न दरबदर
आयेगी वो ज़ीने से उतर सब्र तो करो 

आयी न वफ़ा रास हबीबों को “शेष” की
हमराह हैं खुर्शीदो-क़मर सब्र तो करो 

6 comments:

  1. बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने .......

    थोडा समय यहाँ भी दे :-
    कोई गिफ्ट क्यों नहीं देते ?....

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  2. ये नाम अच्छा लगा एस डी| भाई एस डी जी सब्र की हिमायती आपकी रचना पढ़ कर बहुत सुकून मिला| बधाई|

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  3. Gajendra Ji, Navin Bhai... Thanks a lot. I have made changes in this Ghazal.Please read it again.

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  4. रचना को ग़ज़ल में तब्दील कर दिया एस डी भाई| शुक्रिया| उम्मीद है अब आपकी ग़ज़लें पढ़ने को मिला करेंगी|

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  5. मझ जैसे अधकचरे लेखक को आप जैसे लोगों ने ही ठोंक पीट कर ग़ज़ल लिखना सिखा दिया. धन्यवाद के पात्र हैं आप और आप जैसे कुछ अन्य मित्र.

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  6. तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति - आभार.

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