Thursday, September 9, 2010

मुनिया मुझसे रूठ गयी

खालिद भाई की वो बिटिया शाम सबेरे आती थी
दादी को झप्पी दे मुझको जग की खबर सुनाती थी

कल्लू का पिलवा भागा, अतहर का चश्मा टूट गया
संतू चाचा खेत गए थे उनका लोटा छूट गया

दुखरन दादा लटके हैं अब देखो कै दिन जीते हैं
बंशी चाचा पुत्तन मामा रोज शाम को पीते हैं

रज्जू भैया की फटफटिया तीन दिनन से पंचर है
जीप खटारा रक्खे हैं वो जीप नहीं है खच्चर है

रज्जो भौजी भैया के एगो चिट्ठी लिखवाइन हँ
अपने देवरे से ओका पोस्ट आफिस में भेजवाइन हँ

एक मजे का बात बताई दादा हमका मरिह जिन
भौजी भेजे हईन लिफाफा नाम पता टिकटे के बिन

हर चिट्ठी में ओनके पता एक लाइन क होवत है
मिले मोरे सैंया को जो सेना में कपडा धोवत हैं

तभी अचानक खालिद भाई घबराए से पास आये
मुनिया को अन्दर भेंजा और कानों में कुछ बतलाये

वही पुराना धर्मराग फिर से सर चढ़ कर बोला था
कई घरों को आग लगा लोगों ने खुद को तोला था

फिर तो ये जानो जैसे मेरी किस्मत ही फूट गयी
मुनिया के बिन लगता है जैसे दुनिया ही रूठ गयी

कटता नहीं समय बिन उसके न है कोई खोज खबर
हम बुड्ढे बुढ़िया की थी वो एक सहारा और रहबर

पत्नी मेरी कहती हैं वो पूर्व जनम की माई है
इतने छोटे तन में कितना अपनापन भर लाई है

पता चला खालिद भाई तो शहर से नाता तोड़ गए
अब कैसे बतलाऊँ हमको किस हालत में छोड़ गए

आ जाओ मेरी मुनिया तुम बिन हम न जी पाएंगे
तुमने तो छोड़ा है शहर हम दुनियाँ छोड़ के जायें

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