Monday, July 22, 2013

ज़ख़्म दिल का कहीं न भर जाए

ज़ख्म दिल का कहीं न भर जाए
और तू ज़ेहन से उतर जाए

आ बढ़ा दे मेरी परेशानी
रायगाँ क्यूँ तेरा हुनर जाए

लत लगी तेरे तल्ख़  लहज़ों की
क्यूँ मैं चाहूँ कि तू सुधर जाए

हर नफस में तुम्हारी खुशबू हो
फिर भले नब्ज़ ही ठहर जाए

है नवेद आ के तू मकीं हो जा
क़ब्ल इसके कि दिल मुकर जाए

तू जो पिघले तो मैं बहूँ जी भर
और दरिया चढ़ा उतर जाए

तू गया भी तो जैसे पर कोई
बीच परवाज़ में क़तर जाए

रूह पर तू हमारे क़ाबिज़ है
ज़िस्म फिर क्यू इधर उधर जाए

ऐसे हालात को जिया मैंने
और कोई जिए तो मर जाए 

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