Friday, May 4, 2012

मेरी तो ज़िंदगी से मौत हार मान कर गयी
नही है डर कोई भी मेरी ज़िंदगी संवर गयी

बड़ी अजीब सी कशिश है उसकी नफरतों में भी
न उसने क़ैद ही किया न तो रिहा ही कर गयी

निगाह अब अमान पर नही करो कभी खमी
उड़ा दिये कबूतरों को हम जिधर नज़र गयी

हमें न ज़िंदगी न मौत ही दिया रकीब ने
उसी को मौत दी जो करके मुझको दरबदर गयी

किसे किसे बता दिया खुदा हसीन ये हुनर
हर एक सख्स कह रहा है ज़िंदगी गुजर गयी

फक़त फ़कीर को पता है अस्ल ज़िंदगी है क्या
अमीर ढूँढता रहा है ज़िंदगी किधर गयी

न इब्तिदा न इंतिहा में मुब्तला रहा मगर
शरीर बारहा मुझे ही दागदार कर गयी

हमें है रश्क साहिलों से, क्या नसीब है मिला
कि चूम कर उन्हें समन्दरों की हर लहर गयी

मुझे वो राह ढूंढनी है जिस पे राहबर न हों
हयात रहजनो को ही बना के राहबर गयी

No comments:

Post a Comment