Saturday, April 14, 2012

सज़ा के तौर पर दुनिया बसाना

सज़ा के तौर पर दुनिया बसाना
गुनह कितना हसीं था सेब खाना

रहा अव्वल तेरे हर इम्तिहां में
खुदा अब बंद कर दे आजमाना

चढ़े सूरज का मुस्तकबिल यही है
किसी छिछली नदी में डूब जाना 

दलीलें पेश करके थक चुका हूँ
सुना दो फैसला जो हो सुनाना

खुदा मैं पास तेरे आ तो जाऊं
जमीं का कर्ज बाकी है चुकाना

तुम्हारी खूबियाँ जब जानता हूँ
तुम्हारी खामियों को क्या गिनाना

महो अंजुम को है जब रश्क तुमसे
किसी इंसान को क्या मुह लगाना 

समंदर मौजज़न आँखों में हैं जो
उन्हें दरिया बनाकर क्यूँ बहाना

हमें मंजिल दिखाई दे रही है
"ज़रा आगे से हट जाए ज़माना" 

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