Saturday, June 18, 2011

गर्मियों की वो दुपहरी

सुर्ख होठों को सुखाती गर्मियों की वो दुपहरी
आग सी ले ताप आई गर्मियों की वो दुपहरी 

वो लिपे कमरे की ठंढक और सोंधी सी महक भी 
बंद हो कमरे में काटी गर्मियों की वो दुपहरी

जो सुराही जल पिलाती थी हमें ठंढा, तपन में
खुद पसीने में थी भीगी गर्मियों की वो दुपहरी

ज़िंदगी की आग में तप के जो सोना हो चुका है
क्या असर उस पर दिखाती गर्मियों की वो दुपहरी

फूल टेसू के खिले लगते थे दावानल सरीखे
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दुपहरी

   
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2 comments:

  1. शेष धर जी ... उतना ही मज़ा दे रही है जितना पंकज जी के ब्लॉग पर मिला ...

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  2. वाह भाई जी.... आप भी खूब चुटकी लेते हैं.

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