सज़ा के तौर पर दुनिया बसाना
गुनह कितना हसीं था सेब खाना
रहा अव्वल तेरे हर इम्तिहां में
खुदा अब बंद कर दे आजमाना
चढ़े सूरज का मुस्तकबिल यही है
किसी छिछली नदी में डूब जाना
दलीलें पेश करके थक चुका हूँ
सुना दो फैसला जो हो सुनाना
खुदा मैं पास तेरे आ तो जाऊं
जमीं का कर्ज बाकी है चुकाना
तुम्हारी खूबियाँ जब जानता हूँ
तुम्हारी खामियों को क्या गिनाना
महो अंजुम को है जब रश्क तुमसे
किसी इंसान को क्या मुह लगाना
समंदर मौजज़न आँखों में हैं जो
उन्हें दरिया बनाकर क्यूँ बहाना
हमें मंजिल दिखाई दे रही है
"ज़रा आगे से हट जाए ज़माना"
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